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Thursday, January 19, 2023

जातिगत जनगणना: संविधान का उल्लंघन या वक़्त की ज़रूरत, जानिए अहम सवालों के जवाब - BBC हिंदी

  • राघवेंद्र राव
  • बीबीसी संवाददाता

बिहार जातिगत जनगणना सुप्रीम कोर्ट

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बिहार में जातिगत सर्वेक्षण कराने का फ़ैसला पिछले साल जून में में हुआ था. इसके बाद इस साल 7 जनवरी को बिहार सरकार ने राज्य में सर्वे की प्रक्रिया की शुरुआत कर दी.

दो चरणों में की जा रही इस प्रक्रिया का पहला चरण 31 मई तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है. इसके दूसरे चरण में बिहार में रहने वाले लोगों की जाति, उप-जाति और सामाजिक-आर्थिक स्थिति से जुड़ी जानकारियाँ जुटाई जाएँगी.

लेकिन बिहार में की जा रही जातिगत सर्वे को चुनौती देती हुई एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई है जिस पर पहली सुनवाई 20 जनवरी को मुक़र्रर की गई है.

इस जनहित याचिका में बिहार में की जा रही जातिगत सर्वे को रद्द करने की मांग की गई है.

याचिकाकर्ता का कहना है कि बिहार में हो रही ये प्रक्रिया संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन है क्योंकि जनगणना का विषय संविधान की सातवीं अनुसूची की पहली सूची में आता है और इसलिए इस तरह की जनगणना को कराने का अधिकार केवल केंद्र सरकार को है.

इस जनहित याचिका में ये भी कहा गया है कि 1948 के जनगणना क़ानून में जातिगत जनगणना करवाने का कोई प्रावधान नहीं है.

बिहार जातिगत जनगणना सुप्रीम कोर्ट

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जातिगत जनगणना का इतिहास

भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान जनगणना करने की शुरुआत साल 1872 में की गई थी. अंग्रेज़ों ने साल 1931 तक जितनी बार भी भारत की जनगणना कराई, उसमें जाति से जुड़ी जानकारी को भी दर्ज़ किया गया.

आज़ादी हासिल करने के बाद भारत ने जब साल 1951 में पहली बार जनगणना की, तो केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े लोगों को जाति के नाम पर वर्गीकृत किया गया.

तब से लेकर भारत सरकार ने एक नीतिगत फ़ैसले के तहत जातिगत जनगणना से परहेज़ किया और सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मसले से जुड़े मामलों में दोहराया कि क़ानून के हिसाब से जातिगत जनगणना नहीं की जा सकती, क्योंकि संविधान जनसंख्या को मानता है, जाति या धर्म को नहीं.

हालात तब बदले जब 1980 के दशक में कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उदय हुआ जिनकी राजनीति जाति पर आधारित थी.

इन दलों ने राजनीति में तथाकथित ऊंची जातियों के वर्चस्व को चुनौती देने के साथ-साथ तथाकथित निचली जातियों को सरकारी शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण दिए जाने को लेकर अभियान शुरू किया.

साल 1979 में भारत सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के मसले पर मंडल कमीशन का गठन किया था.

मंडल कमीशन ने ओबीसी श्रेणी के लोगों को आरक्षण देने की सिफ़ारिश की. लेकिन इस सिफ़ारिश को 1990 में ही जाकर लागू किया जा सका. इसके बाद देश भर में सामान्य श्रेणी के छात्रों ने उग्र विरोध प्रदर्शन किए.

चूंकि जातिगत जनगणना का मामला आरक्षण से जुड़ चुका था, इसलिए समय-समय पर राजनीतिक दल इसकी मांग उठाने लग गए. आख़िरकार साल 2010 में जब एक बड़ी संख्या में सांसदों ने जातिगत जनगणना की मांग की, तो तत्कालीन कांग्रेस सरकार को इसके लिए राज़ी होना पड़ा.

2011 में सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना करवाई तो गई, लेकिन इस प्रक्रिया में हासिल किए गए जाति से जुड़े आंकड़े कभी सार्वजानिक नहीं किए गए.

इसी तरह साल 2015 में कर्नाटक में जातिगत जनगणना करवाई गई. लेकिन इसमें हासिल किए गए आंकड़े भी कभी सार्वजानिक

नहीं किए गए.

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2011 की जातिगत जनगणना के आँकड़े सार्वजानिक क्यों नहीं?

जुलाई 2022 में केंद्र सरकार ने संसद में बताया कि 2011 में की गई सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना में हासिल किए गए जातिगत आंकड़ों को जारी करने की कोई योजना नहीं है.

इसके कुछ ही महीने पहले साल 2021 में एक अन्य मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में दायर एक शपथ पत्र में केंद्र ने कहा था कि 'साल 2011 में जो सामाजिक आर्थिक और जातिगत जनगणना करवाई गई, उसमें कई कमियां थीं. इसमें जो आंकड़े हासिल हुए थे वे ग़लतियों से भरे और अनुपयोगी थे.'

केंद्र का कहना था कि जहां भारत में 1931 में हुई पहली जनगणना में देश में कुल जातियों की संख्या 4,147 थी वहीं 2011 में हुई जाति जनगणना के बाद देश में जो कुल जातियों की संख्या निकली वो 46 लाख से भी ज़्यादा थी.

2011 में की गई जातिगत जनगणना में मिले आंकड़ों में से महाराष्ट्र की मिसाल देते हुए केंद्र ने कहा कि जहां महाराष्ट्र में आधिकारिक तौर पर अधिसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी में आने वाली जातियों कि संख्या 494 थी, वहीं 2011 में हुई जातिगत जनगणना में इस राज्य में कुल जातियों की संख्या 4,28,677 पाई गई.

साथ ही केंद्र सरकार का कहना था कि जातिगत जनगणना करवाना प्रशासनिक रूप से कठिन है.

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प्रोफ़ेसर सतीश देशपांडे दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाते हैं और एक जाने माने समाजशास्त्री हैं.

सतीश देशपांडे बताते हैं, "राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना तो देर सवेर होनी ही है, लेकिन सवाल ये है कि इसे कब तक रोका जा सकता है. राज्य कई तरह की अपेक्षाओं के साथ ये जातिगत जनगणना कर रहे हैं. कभी-कभी जब उनकी राजनीतिक अपेक्षाएं सही नहीं उतरती हैं, तो कई बार इस तरह की जनगणना से मिले आंकड़ों को सार्वजानिक नहीं किया जाता है."

कर्नाटक में की गई जातिगत जनगणना का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं, "ये जातिगत जनगणना काफी शिद्दत से की गई. तकनीकी तौर पर ये अच्छी जनगणना थी. लेकिन उसके आंकड़े अभी तक सार्वजानिक नहीं हुए हैं. ये मामला राजनीतिक दांव-पेंच में अटक गया. किसी गुट को लगता है उसे फ़ायदा होगा और किसी अन्य गुट को लगता है कि उनका नुक़सान हो जाएगा."

इलाहाबाद स्थित गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान में कार्यरत प्रोफ़ेसर बद्रीनारायण कहते हैं, "जो पार्टियां जातिगत जनगणना करके भी उसके आंकड़े सामने नहीं लाती हैं, तो उसकी वजह या तो कोई भय होगा या आंकड़ों में रहा कोई अधूरापन होगा. बहुत सारी जातियों ने जो सोशल मोबिलिटी ने हासिल की है, उनकी श्रेणियों को निर्धारित करना इतना आसान भी नहीं है. बहुत सारे विवादों से बचने के लिए भी शायद आंकड़े सामने नहीं लाये जाते होंगे."

प्रोफ़ेसर देशपांडे के मुताबिक़, ये कहना मुश्किल है कि आगे क्या होगा "लेकिन जातिगत जनगणना की मांग एक जायज़ मांग है और इस पर अमल किया जाना चाहिए".

वे कहते हैं, "जातिगत जनगणना करवाने में जो तकनीकी अवरोध बताये जाते हैं वो सिर्फ़ अटकलबाज़ी है. जटिल चीज़ों की गणना हमारे सेन्सस के लिए कोई नई बात नहीं है. तकनीकी तौर पर ये पूरी तरह से संभव है. साल 2001 में सेन्सस कमिश्नर रहे डॉक्टर विजयानून्नी ने बड़े साफ़ तौर पर कहा है कि जो जनगणना करने का तंत्र है वो इस तरह की जनगणना करने में सक्षम है."

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क्या होंगे जातिगत जनगणना के लाभ?

जातिगत जनगणना के पक्ष में और उसके ख़िलाफ़ कई तरह के तर्क दिए जाते रहे हैं.

इसके पक्ष में सबसे बड़ा तर्क ये दिया जाता है कि इस तरह की जनगणना करवाने से जो आंकड़े मिलेंगे उन्हें आधार बना कर सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ समाज के उन तबक़ों तक पहुँचाया जा सकेगा, जिन्हें उनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है.

प्रोफ़ेसर देशपांडे कहते हैं, "एक तर्क ये है कि जातिगत जनगणना का फ़ायदा ये होगा कि कल्याणकारी योजनाओं के लिए आंकड़े उपलब्ध होंगे तो उनके लिए तैयारी बेहतर तरीक़े से की जा सकती है. ये तर्क कहाँ तक कारगर होगा ये देखना पड़ेगा क्योंकि ये लाज़िमी नहीं है कि आंकड़ों का होना कल्याणकारी कार्यक्रमों में इज़ाफ़ा करता है या उनके क्रियान्वयन को बेहतर बनाता है."

प्रोफ़ेसर देशपांडे के मुताबिक़, जातिगत जनगणना होने से जो आंकड़े सामने आएंगे उनसे "ये तथ्य सामने आएंगे कि किसकी कितनी संख्या है और समाज के संसाधनों में किसकी कितनी हिस्सेदारी है".

वे कहते हैं, "तो इसमें अगर विषमता सामने आती है तो इसका सामने आना हमारे समाज के लिए अच्छा है. भले ही फ़ौरी तौर पर हमारी समस्याएं बढ़ेंगी और राजनीतिक असंतोष फ़ैल सकता है, लेकिन लम्बे दौर में ये समाज के स्वास्थ्य के लिए बहुत ज़रूरी है. जितनी जल्दी हम इसका सामना करते हैं उतना हमारे समाज के लिए अच्छा होगा."

प्रोफ़ेसर देशपांडे का ये भी कहना है कि आज जाति को लेकर दो बड़ी समस्याएँ हैं जो एक-दूसरे से जुड़ी हैं.

वे कहते हैं, "एक तो ये कि जिन जातियों को जाति व्यवस्था से सबसे अधिक फ़ायदा हुआ है, यानी कथित ऊँची जातियाँ, उनकी गिनती नहीं हुई है. इन्हें आंकडों के मामले में गुमनामी का वरदान मिला हुआ है. दूसरी समस्या यह है कि इसी तबक़े के सबसे संपन्न और दबंग यह ख़ुशफ़हमी पाले हुए हैं कि उनकी कोई जाति नहीं है, और वह अब जाति से ऊपर उठ चुके हैं."

वे कहते हैं कि "जब जनगणना जैसे औपचारिक और राजतंत्र के ज़रिये किए गए सर्वेक्षण में सबसे पूछा जाएगा कि आपकी जाति क्या है, तो ये धारणा लोगों के मन में आएगी कि समाज की नज़रों में सबकी जाति होती है".

उनके मुताबिक़ "मनोवैज्ञानिक या सांस्कृतिक ही सही, ये एक बहुत बड़ा फ़ायदा होगा. साथ ही यह भी साफ़ दिख पड़ेगा कि उच्च-जातीय तबक़ा वास्तव में अल्पसंख्यक तबक़ा है."

बिहार जातिगत जनगणना सुप्रीम कोर्ट

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जातिगत जनगणना से क्या है डर?

अगस्त 2018 में केंद्र सरकार ने 2021 में की जाने वाली जनगणना की तैयारियों का विवरण देते हुए कहा था, कि इस जनगणना में "पहली बार ओबीसी पर डेटा एकत्र करने की भी परिकल्पना की गई है".

लेकिन बाद में केंद्र सरकार ने इस बात से किनारा कर लिया.

प्रोफ़ेसर देशपांडे कहते हैं, "केंद्र में जब भी कोई सरकार आती है, तो वो अपना हाथ खींच लेती है. और जब वो विपक्ष में होती है तो वो जातिगत जनगणना के पक्ष में बोलती है. ऐसा बीजेपी के साथ भी हुआ और कांग्रेस के साथ भी हुआ."

जातिगत जनगणना की बात आते ही अक्सर बहुत सी चिंताएं और सवाल भी उठे खड़े होते हैं. इनमें से एक बड़ी चिंता ये है कि जातिगत जनगणना से जो आंकड़े मिलेंगे उनके आधार पर देश भर में आरक्षण की नई मांगें उठनी शुरू हो जाएँगी.

हालाँकि विश्लेषकों का ये भी कहना है कि आरक्षण की जो पचास प्रतिशत की सीमा तय की गई है, उसे सुप्रीम कोर्ट ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण के मामले में सुनाये गए फ़ैसले में दरकिनार कर दिया है.

प्रोफ़ेसर बद्री नारायण कहते हैं "अगर जातिगत जनगणना करवाने के पक्ष में ये तर्क दिया जाता है कि इससे सामाजिक लोकतंत्र मज़बूत होगा, तो ये सवाल भी उठाया जाता है कि इस तरह की जनगणना करवाने से जो सामाजिक विभाजन होगा, उनसे कैसे निपटा जायेगा?

विपक्ष का तर्क ये है कि जातिगत जनगणना से एकजुटता मज़बूत होगी और लोगों को लोकतंत्र में हिस्सेदारी मिलेगी. लेकिन इस बात का डर सबको है कि इससे समाज में एक जातिगत ध्रुवीकरण बढ़ सकता है. इससे समाज में लोगों के आपसी सम्बन्ध प्रभावित हो सकते हैं."

जातिगत जनगणना को लेकर क्या है बीजेपी की बड़ी चिंता?

विश्लेषकों की मानें तो जातिगत जनगणना में जहाँ क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को राजनीतिक फ़ायदा नज़र आ रहा है वहीं बीजेपी को उतना ही नुक़सान.

प्रोफ़ेसर बद्री नारायण कहते हैं, "बीजेपी ख़ुद को सबको साथ लेकर चलने वाली पार्टी के रूप में पेश करती है. ऐसे में वो हर ऐसे मुद्दे को नहीं उठाना चाहेगी, जिससे समाज का कोई भी वर्ग उसके ख़िलाफ़ हो जाये. बीजेपी इस मुद्दे को सीधी तरह नकार भी नहीं सकती. इसलिए वो एक बीच का रास्ता अपनाती है."

उनके मुताबिक़, बीजेपी की चिंता ये है कि अगर जातिगत जनगणना की वजह से हिन्दू समाज और ज़्यादा जातियों में बंट जाता है तो इसका उसे घाटा होगा.

वे कहते हैं, "वहीं दूसरी तरफ क्षेत्रीय दलों की पूरी राजनीति ही जातिगत ध्रुवीकरण पर आधारित होती है. उन्हें लगता है कि अगर जातिगत जनगणना की वजह से समाज और ज़्यादा जातियों में बंटता है तो इसका उन्हें राजनीतिक फ़ायदा मिलेगा."

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प्रोफ़ेसर सतीश देशपांडे का भी कुछ ऐसा ही मानना है.

वे कहते हैं, "बीजेपी का सारा कार्यक्रम हिन्दू एकता पर निर्भर है. इसलिए हिन्दू एकता पर ज़ोर देना उनके लिए लाज़िमी है. वो हिन्दू नामक एकमुश्त पहचान जो वो बनाना चाहते हैं, उसमें जाति दरार पैदा करेगी और इससे उन्हें नुक़सान होगा."

लेकिन प्रोफ़ेसर देशपांडे का ये भी कहना है कि जिस तरह की मज़बूत स्थिति में बीजेपी इस समय है, उसके चलते वो जातिगत जनगणना करवाने का फ़ैसला ले भी सकती है.

वे कहते हैं, "मेरे ख़्याल से बीजेपी को असुविधा तो ज़रूर होगी, लेकिन मौजूदा हालात में उनके सामने जब कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है तो उनका आत्मविश्वास शायद चरम सीमा पर हो. और इसी तरह के समय में वो इस तरह का जोख़िम उठा सकती है. अगर बीजेपी दूरदर्शिता दिखाए तो वो ये जोख़िम उठा सकती है."

क्या भारत को जातिगत जनगणना की ज़रूरत है?

तो बड़ा सवाल यही है कि क्या भारत को जातिगत जनगणना करवाने की ज़रूरत है?

कई समाजशास्त्री और राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि समाज में जाति को अगर ख़त्म करना है, तो जाति की वजह से मिल रहे विशेषाधिकारों को पहले ख़त्म करना होगा. साथ ही वंचित वर्गों की भी पहचान करनी होगी.

ये तभी किया जा सकता है जब सभी जातियों के बारे में सटीक जानकारी और आंकड़े उपलब्ध हों. ये सिर्फ़ एक जातिगत जनगणना से ही हासिल हो पाएगा.

दूसरी तरफ़ ये तर्क तो है ही कि सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का असल फ़ायदा उन लोगों तक पहुँचाना ज़रूरी है, जो अब तक इससे वंचित हैं. जातिगत जनगणना ही एक ऐसा ज़रिया है, जो ये सुनिश्चित करने में मदद कर सकता है.

तीसरी बात है शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में दिए जा रहे आरक्षण का दायरा और बढ़ाने की. ये काम करने के लिए भी जाति से जुड़े विश्वसनीय आंकड़ों की ज़रूरत है, जो सिर्फ़ एक जातिगत जनगणना ही उपलब्ध करवा सकती है.

प्रोफ़ेसर देशपांडे कहते हैं कि "जातिगत जनगणना का होना लाज़िमी है, क्योंकि जाति के आंकड़े सामने आने ही चाहिए."

वहीं दूसरे तरफ प्रोफ़ेसर बद्री नारायण का मानना है कि इस तरह की जनगणना करवाना एक सही क़दम नहीं होगा.

वे कहते हैं, "भारत का लोकतंत्र इतना आगे पहुँच चुका है कि मुझे नहीं लगता कि जातिगत जनगणना जैसी क़वायद करके उसे फिर से पीछे ले जाने की ज़रूरत है."

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