डा. लक्ष्मी शंकर यादव। अमेरिकी सेना के जाने के बाद अफगानिस्तान में तालिबान इतनी तेजी से बढ़ा कि उसे काबुल पहुंचने में देर नहीं लगी, क्योंकि अफगान सेना पीछे हट रही थी या फिर मैदान छोड़कर भाग रही थी। इससे परिणाम निश्चित लग रहा था और वही हुआ भी। अब तालिबान के सत्ता पर काबिज होने के बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि अफगानिस्तान के साथ भारतीय रणनीति कैसी होगी और भारत का रुख तालिबान के साथ कैसा रहेगा। अफगानिस्तान में सेना की विफलता और तालिबान की सत्ता स्थापित होने के बाद अमेरिका के विरोधियों ने अवसरों का लाभ उठाना शुरू कर दिया है। अफगानिस्तान में कायम अफरातफरी के बीच चीन, रूस और ईरान ने अपने हितों को आगे बढ़ाना प्रारंभ कर दिया है। इन देशों की रणनीति ने भारत की चिंताएं बढ़ा दी हैं।
अफगानिस्तान की भौगोलिक स्थिति को देखा जाए तो अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश उससे काफी दूरी पर स्थित हैं। अब जब अफगानिस्तान पर तालिबानी सत्ता का कब्जा हो गया है तो चीन व पाकिस्तान पूरी तरह उसके साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं। तालिबान के वहां स्थापित होने के बाद भारत के खिलाफ चीन व पाकिस्तान के संबंध और अधिक मजबूत होंगे। भारत इन सब पर बड़ी सावधानी से नजर रखे हुए है और इसीलिए अब तक बेहद सधी हुई प्रतिक्रियाएं दी गई हैं। तालिबानी सहयोग में पाकिस्तान की जो भूमिका रही है उससे स्पष्ट है कि पाकिस्तान तालिबानी सत्ता को अपने इशारों पर चला सकता है। दूसरी तरफ पाकिस्तान चीन के इशारों पर चलने वाला देश है। ऐसे में चीन अपने स्वार्थ पहले पूरे करने का प्रयास करेगा।
चीन सबसे पहले अपनी महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड परियोजना को पूरा करने का प्रयास करेगा, क्योंकि पिछले कुछ समय से अमेरिका और भारत सहित कुछ अन्य देशों ने चीन के द्वारा दूसरे देशों में चलाई जा रही ढांचागत परियोजनाओं पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। अब चीन इस परियोजना को बढ़ाकर अफगान तक ले जाएगा। इसी तरह सीपीईसी यानी चीन पाकिस्तान इकोनामिक कारिडोर को नए सिरे से प्रोत्साहन मिलेगा और उसे अब अफगानिस्तान तक जोड़ा जा सकेगा। चीन की यह भी इच्छा है कि वह अफगान में भी दूसरे देशों की तरह भारी भरकम परियोजनाएं प्रारंभ करे। अब इन परियोजनाओं को बलूचिस्तान की ग्वादर परियोजना से जोड़ा जा सकता है। गौरतलब है कि चीन की सीपीईसी परियोजना का विरोध करने वाला पहला देश भारत ही है। इस परियोजना का एक बड़ा हिस्सा गुलाम कश्मीर से होकर गुजरता है और यह क्षेत्र भारतीय राज्य जम्मू-कश्मीर का अभिन्न अंग है।
पाकिस्तान ने यह कारिडोर बनाने के लिए कुछ समय पहले चीन से करार किया था जिसके तहत तीन हजार किमी लंबे इस आर्थिक गलियारे का लगभग 634 किमी का हिस्सा गिलगित-बाल्टिस्तान से होकर गुजरेगा। इसी कारण जम्मू-कश्मीर के उत्तर में स्थित यह क्षेत्र चीन के साथ महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में जाना जाता है और चीन-पाकिस्तान आर्थिक कारिडोर के प्रमुख मार्ग पर स्थित है। यह सड़कों, राजमार्गो, रेलवे और निवेश पार्को के नेटवर्क के जरिये दक्षिणी पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह से पश्चिम चीन के काशगर को जोड़ता है। गुलाम कश्मीर के रास्ते सीपीईसी बनाए जाने को लेकर भारत कई बार आपत्ति जता चुका है। इसके बाद से ही चीन इस क्षेत्र में निवेश को लेकर चिंतित है, क्योंकि विवादित क्षेत्र होने के कारण इस इलाके में निवेश सुरक्षित नहीं हैं। चीन की इसी चिंता को दूर करने के लिए पाकिस्तान अपनी इस योजना में इस क्षेत्र को प्रांतीय दर्जा देना चाहता है। गिलगित-बाल्टिस्तान का क्षेत्रफल लगभग 72,971 वर्ग किमी है। इसकी सीमा पश्चिम में खैबर पख्तूनवा, उत्तर में अफगान के वाखान गलियारा, उत्तर पूर्व में चीन के शिनङिायांग प्रांत और दक्षिण पूर्व में जम्मू-कश्मीर से मिलती है।
इस गलियारे के बन जाने से चीन सबसे अधिक फायदे में रहेगा। चीन को तेल व गैस आयात के लिए पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह तक सड़क, रेल व पाइपलाइन का नेटवर्क प्राप्त हो जाएगा। इसके बाद उसे पश्चिम एशिया और अफ्रीका के बीच व्यापार करने के लिए बड़ा मार्ग मिल जाएगा। लिहाजा दक्षिण सागर से कारोबारी मार्ग छोड़कर चीन वहां पर निडर होकर ताकत आजमाएगा। भारत को दक्षिण चीन सागर में रोकने में चीनी सेना सक्षम बन जाएगी। पाकिस्तान और चीन का सामरिक कारोबारी रिश्ता भारत के लिए बड़ी चुनौती प्रस्तुत करेगा। इस आर्थिक गलियारे का उपयोग सामरिक उद्देश्यों के तहत भारत को घेरने के लिए भी किया जाएगा। इस रास्ते के बनने से भारत की पश्चिमी सीमा पर चीनी सेनाओं की गतिविधियां बढ़ जाएंगी जो भारत के लिए खतरनाक सिद्ध होंगी। चीन की रणनीति यह भी होगी कि वह भारत को पश्चिम और मध्य एशिया से संपर्क भंग कर दे।
क्षेत्रीय संपर्क के लिहाज से भारत के लिए अफगान विषेश महत्व रखता है। अमेरिका न्यू सिल्क रोड रणनीति का विचार मध्य एशिया, विशेष रूप से भारत को अफगानिस्तान के माध्यम से व्यापार, पारगमन और ऊर्जा मार्गो से जोड़ना था। भारत की ओर से ईरान में चाबहार बंदरगाह और अफगान में जरांज-डेलाराम रोड पर निवेश इसी रणनीति का हिस्सा थे, जो चीन की वजह से परेशानी में आ सकते हैं। अमेरिकी प्रशासन ने हाल ही में अमेरिका, अफगान, पाकिस्तान और उजबेकिस्तान को लेकर क्षेत्रीय संपर्क बढ़ाने पर केंद्रित एक नया क्वाडिलेट्रल डिप्लोमैटिक प्लेटफार्म बनाने के लिए सहमति व्यक्त की थी जिससे बदले हालातों में चीन स्वयं इसका फायदा उठा सकता है। चीन के उभार का मुकाबला करने के लिए भारत, हिंदू-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के साथ काम करना चाहता था, परंतु अब दक्षिण मध्य एशिया में चीन-पाक-तालिबान गठजोड़ इसके लिए परेशानियां खड़ी कर सकता है।
[पूर्व प्राध्यापक, सैन्य विज्ञान विषय]
अफगानिस्तान की सत्ता में तालिबान की वापसी से भारत के लिए बढ़ी चुनौतियां - दैनिक जागरण (Dainik Jagran)
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