- सुमंत्र बोस
- कश्मीर मामलों के जानकार, येल यूनिवर्सिटी
कश्मीर में भारतीय शासन के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की आवाज़ उठाने वाले शीर्ष अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी का 92 साल की उम्र में निधन हो गया.
मैं उनसे पहली बार 1995 में श्रीनगर के हैदरपोरा इलाक़े में बन रहे उनके घर में मिला था. तब थोड़े ही दिन पहले वे जेल से रिहा हो कर आए थे. इसके बाद मैं उनसे कई बार मिला, लेकिन पहली मुलाक़ात की याद आज भी ताज़ा है.
गिलानी सभ्य अंदाज़ में बेहद नरमी से मिले थे, लेकिन मुझे उनकी फ़ौलादी शख़्सियत का एहसास हो रहा था. उन्होंने मुझसे लंबे समय तक बात करने का वक़्त निकाला. तब मैं कोलंबिया यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन करने वाला 25 साल का एक भारतीय छात्र था.
बातचीत के अंत में मेरा माथा चूमते हुए उन्होंने मुझे क़ुरान की प्रति पढ़ने की गुज़ारिश करते हुए तोहफ़े में दी. मैंने बाद में नोटिस किया कि अरबी-अंग्रेज़ी का यह द्विभाषी संस्करण सऊदी अरब में प्रकाशित हुआ था. वो भारी भरकम और अलंकृत धार्मिक ग्रंथ आज कोलकाता के मेरे पारिवारिक घर के लिविंग रूम की शोभा है.
1990 के दशक में मैं कुछ दूसरे कश्मीरी नेताओं से भी मिला था. इन नेताओं की तुलना में, गिलानी अपनी बात पूरी स्पष्टता से रखते थे. हमारी बातचीत दो पहलुओं पर केंद्रित थी जिसे उन्होंने शिष्ट भाव से लेकिन पूरी ताक़त से उठाया था.
सबसे पहले तो उन्होंने स्पष्ट किया कि वे गर्व से भरे कश्मीरी हैं, लेकिन उन्हें लगता है कि उनकी राष्ट्रीय पहचान पाकिस्तानी है.
आज़ाद कश्मीर के विचार के विरोधी
दूसरी बात, वे स्वतंत्र कश्मीर के विचार के प्रबल विरोधी थे. मैं तब तक कश्मीर घाटी में विस्तृत तरीके से घूम चुका था और यह जानता था कि घाटी के अंदर ही नहीं बल्कि जम्मू क्षेत्र में भी कश्मीरी बोलने वाले तमाम मुसलमान स्वतंत्र कश्मीर चाहते थे.
1990 में लगातार बढ़ रहे अलगाववाद और चरमपंथ के दौर में ऐसे लोगों के लिए आज़ादी एक तरह से भारत और पाकिस्तान, दोनों से मुक्त होने जैसा था, जो 1947 से अपनी ज़मीन पर कब्ज़े की लड़ाई लड़ रहे थे.
वहीं पाकिस्तान के समर्थक अपेक्षाकृत बेहद कम संख्या में थे, इनमें से अधिकांश लोगों ने मिलकर जमात-ए-इस्लामी (जेआई) पार्टी का गठन किया था.
मैंने गिलानी को ज़मीनी सच्चाई के बारे में स्पष्टता से बताया. उन्होंने प्रत्यक्ष तौर पर मेरी बातों का खंडन नहीं किया था, लेकिन मुझे इत्मीनान से समझाया कि आज़ादी की कल्पना बेहद ख़तरनाक है. इससे जम्मू-कश्मीर की मुस्लिम बहुल आबादी के लाइन ऑफ़ कंट्रोल के दोनों ओर विपक्षी कैंपों में बंटने का ख़तरा है.
वह इस बात पर अड़े थे कि कश्मीर और कश्मीरियों की नियति पाकिस्तान के हाथ में है.
यासीन मलिक की गिलानी के बारे में राय
कुछ दिनों के बाद, मैं आज़ादी समर्थक जम्मू और कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट (जेकेएलएफ़) के युवा नेता मोहम्मद यासीन मलिक से उनके मध्य श्रीनगर के मैसूमा स्थित घर पर मिला.
मलिक हाल ही में चार साल की जेल से रिहा हुए थे और उन्होंने हिंसक रास्ता छोड़ने की घोषणा की थी. मैंने गिलानी के साथ अपनी मुलाकात की बात उनसे बतायी. यासीन ने खींस निपोरते हुए कहा, "ठीक है, वह गिलानी साहब हैं."
जेकेएलएफ़ नेता की प्रतिक्रिया से कश्मीरी आंदोलन में उत्पन्न हुए कश्मीर की आज़ादी से जुड़े दो विचार- आज़ादी के पक्ष में बहुसंख्यक दृष्टिकोण और अल्पसंख्यक पाकिस्तान समर्थक दृष्टिकोण - के बीच के भीषण मतभेद का पता चलता है.
जेकेएलएफ़ ने 1989-90 से विद्रोह शुरू किया और 1993 तक यह प्रमुख समूह बना रहा. लेकिन 1995 के बाद से स्वतंत्रता-समर्थक विद्रोही समूह हाशिए पर चले गए थे और सशस्त्र संघर्ष को हिज्बुल मुजाहिदीन (एचएम) ने अपने कब्ज़े में कर लिया था. यह जेकेएलएफ़ का प्रतिद्वंद्वी समूह जो गिलानी की पार्टी के साथ जुड़ाव रखे हुए था.
पाकिस्तान सेना और विशेष रूप से इंटर-सर्विसेज़ इंटेलीजेंस (आईएसआई) एजेंसी की मदद से हिज़्बुल मुजाहिदीन ने स्वतंत्रता समर्थक चरमपंथियों और सिविल सोसायटी के सदस्यों, दोनों की हत्याएं शुरू कर दी थीं. इन हत्याओं का विरोध शुरू हुआ और इससे भारतीय सुरक्षा बल को अलगाववादियों पर अंकुश लगाने में मदद मिली.
गिलानी की राजनीति
गिलानी ने बहुत बाद में सशस्त्र संघर्ष का समर्थन शुरू किया था. 1986 में जब घाटी में कुछ अशांत युवक अफ़ग़ान मुजाहिदीन की तरह बंदूक़ उठाने पर विचार कर रहे थे, तो उन्होंने युवकों को इस रास्ते पर जाने से आगाह किया था.
उन्होंने जमात-ए-इस्लामी के अख़बार 'अज़ान' में लिखा कि आंदोलन को "लोगों को शिक्षित करने के लिए" काम करना चाहिए और उन्हें कश्मीर पर "संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों" के क्रियान्वन के लिए "एक संगठित लेकिन शांतिपूर्ण संघर्ष" के लिए लामबंद करना चाहिए. संयुक्त राष्ट्र ने 1940-1950 के दशक में भारतीय या पाकिस्तानी संप्रभुता को चुनने के लिए जनमत संग्रह कराने का आह्वान किया था.
लेकिन फ़रवरी 1991 में, जब कश्मीर घाटी में हिंसा की आग फैल गई, गिलानी ने उत्तर भारत की एक जेल से तत्कालीन भारतीय प्रधान मंत्री चंद्रशेखर को लिखा, "भारतीयों ने अंग्रज़ों से स्वतंत्रता के लिए दोनों तरह यानी राजनीतिक और सशस्त्र संघर्ष किया था. महात्मा गांधी ने अहिंसा का रास्ता चुना था जबकि सुभाष चंद्र बोस ने सशस्त्र संघर्ष का रास्ता अपनाया था."
बहुत देरी से सशस्त्र संघर्ष के पक्ष में खड़े होने को अगर अपवाद मान लें तो गिलानी की राजनीति 70 वर्षों से उल्लेखनीय रूप से एक ही ढर्रे पर रही.
आज़ादी समर्थक कश्मीर नेता मौलाना मोहम्मद सैय्यद मसूदी उनके शुरुआती मेंटॉर रहे. दिसंबर 1990 में चरमपंथियों ने मसूदी की 87 साल की उम्र में हत्या कर दी थी.
लेकिन 1950 के दशक की शुरुआत में, उन्होंने जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक मौलाना अबुल अला मौदुदी के लेखों की खोज की. इसके अध्ययन ने उनके पूरे जीवन के लिए पाठ्यक्रम निर्धारित कर दिया. इसका ज़िक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा 'वुलर के किनारे' में किया है. (आत्मकथा का शीर्षक उन्होंने अपने पैतृक गांव के संदर्भ में दिया है जो उत्तर कश्मीर घाटी में वुलर झील के किनारे स्थित था.)
गिलानी की मौत ऐसे समय में हुई है जब कई कश्मीरियों का मानना है कि भारत सरकार के स्वायत्तता को रद्द करने के फ़ैसले से कश्मीर पहले से कहीं ज्यादा अस्थिर हो गया है.
इस्लामिक रूढ़िवाद और पाकिस्तान के प्रति वफ़ादारी के बजाय दु:खद और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने की गिलानी की चारित्रिक दृढ़ता ने उन्हें कई कश्मीरियों के दिलों में सम्मानजनक स्थान दिलाया था.
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(राजनीति विज्ञानी सुमंत्र बोस येल यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित 'कश्मीर एट द क्रॉसरोड- इनसाइड ट्वेंटी फ़र्स्ट सेंचुरी' के लेखक हैं.)
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