उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण रद्द करने का फैसला जब से हाईकोर्ट से आया है, उसके बाद से ही राज्य में सियासी तूफान खड़ा हो गया है. समाजवादी पार्टी और उसके नेताओं ने ओबीसी आरक्षण के मामले पर योगी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है. सपा ने जिस तरह से आक्रामक रुख अपना रखा है, उस तरह से बसपा के तेवर नजर नहीं आ रहे हैं. ओबीसी आरक्षण के मुद्दे पर सपा प्रमुख अखिलेश यादव से पिछड़ती बसपा सुप्रीमो मायावती अब बढ़त लेने के लिए लखनऊ में शुक्रवार को बड़ी बैठक बुलाई है.
मायावती ने बैठक में पार्टी के सभी बड़े नेता, मंडल कोऑर्डिनेटर, सेक्टर कोऑर्डिनेटर, बामसेफ के जिला संयोजक व पार्टी जिलाध्यक्ष बुलाया है. इस बैठक में खास तौर पर निकाय चुनाव को लेकर मंथन होगा. आगामी रणनीति और उम्मीदवारों पर भी चर्चा की जा सकती है. सूबे में ओबीसी आरक्षण को लेकर निकाय चुनाव में अब नया मोड़ आ गया है. सपा इस मुद्दे पर योगी सरकार के खिलाफ सड़क पर उतर चुकी है तो मायावती भी अपने सभी पदाधिकारियों के साथ इस मुद्दे को धार देने के लिए रणनीति बनाएगी?
बसपा के थिंक टैंक और एक कोऑर्डिनेटर ने बताया कि अब नगर निकाय चुनाव में अंतिम फैसला क्या होगा, इस पर निगाह रखते हुए अपनी रणनीति भी बदलनी होगी. इसके लिए बैठक में मायावती जिला स्तर तक की समीक्षा करेंगी. निकाय चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर मंथन किया जाएगा. जिलों में सेक्टर और विधानसभा स्तर तक की बैठकें चल रही हैं, जिनकी समीक्षा अब मायावती खुद करेंगी. इसके अलावा ओबीसी आरक्षण के मुद्दे को धार देने के लिए मायावती अपने नेताओं के साथ रणनीति बनाने पर मंथन करेंगी.
मायावती की नजर ओबीसी वोटर्स पर
हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद मायावती ने कहा कि ये निर्णय बीजेपी और उनकी सरकार की ओबीसी और आरक्षण विरोधी सोच को प्रकट करता है. साथ ही उन्होंने कहा कि इस गलती की सजा ओबीसी समाज बीजेपी को जरूर देगा. मायावती की नजर ओबीसी वोटबैंक पर है, जिसके चलते हाल ही में उन्होंने अतिपछड़े समुदाय से आने वाले विश्वनाथ पाल को बसपा का प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया है. बसपा की शुक्रवार को होने वाली बैठक में विश्वनाथ पाल पहली बार प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर शामिल होंगे.
सूत्रों की मानें तो ओबीसी आरक्षण के मुद्दे को आक्रामक तरीके से उठाने के लिए मायावती प्रदेश अध्यक्ष विश्वनाथ पाल को अहम जिम्मेदारी सौंप सकती है. मायावती अपने दलित वोटबैंक को सहेजकर रखते हुए ओबीसी को भी जोड़ने की कवायद कर रही है. इसीलिए निकाय चुनाव पर हाईकोर्ट से फैसला आते ही मायावती ने बीजेपी को ओबीसी विरोधी बताने में देर नहीं लगाई.
मायावती ने शुक्रवार को पार्टी के सभी अहम नेताओं की बैठक बुलाई है. बसपा नेताओं और रणनीतिकारों के साथ बामसेफ के सभी जिला संयोजकों को भी बुलाया गया है. बामसेफ वही संगठन है, जिसे कांशीराम ने बनाया था. बामसेफ बसपा के लिए सियासी आधार तैयार करने का काम करता है, जिसमें दलित और ओबीसी समुदाय सरकार कर्मचारी जुड़े हैं. इससे समझा जा सकता है कि मायावती ओबीसी के मुद्दे पर आर-पार की लड़ाई लड़ने का मन बना चुकी हैं, क्योंकि बसपा का सियासी आधार दलित और अतिपिछड़ा वर्ग ही रहा है.
कांशीराम ने समझा था OBC का महत्व
उत्तर प्रदेश की सियासत में अतिपिछड़े समुदाय की राजनीतिक ताकत को सबसे पहले कांशीराम ने समझा था. कांशीराम ने अतिपिछड़ी वर्ग के अलग-अलग जातियों के नेताओं को बसपा संगठन से लेकर सरकार तक में प्रतिनिधित्व दिया था. इसमें मौर्य, कुशवाहा, नाई, पाल, राजभर, नोनिया, बिंद, मल्लाह, साहू जैसी समुदाय के नेता थे. ये समुदाय ही बसपा की बड़ी ताकत बने थे. 2007 के चुनाव में बसपा के पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आने में अतिपिछड़ी जातियों के लोगों की भूमिका अहम रही थी, लेकिन उसके बाद से यह वोट पार्टी से छिटकता ही गया और 2014 के चुनाव में पूरी तरह से हाथ से निकल गया.
बसपा में रहे अतिपिछड़ी जातियों के नेता खुद पार्टी छोड़ दिए या फिर मायावती ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया. ऐसे में कांशीराम की छत्रछाया में पले पढ़े और सियासी प्रयोग से निकले ये अतिपिछड़ी समुदाय के नेताओं ने सपा बीजेपी और कांग्रेस में अपना ठिकाना बना लिया. ये सभी नेता आज उन पार्टियों में अहम भूमिका में है. ऐसे में अब मायावती दोबारा से अतिपिछड़ा वर्ग को साधने के लिए उतरी हैं, जिसके तहत उन्होंने विश्वनाथ पाल को पार्टी की कमान सौंपी है और ओबीसी आरक्षण मुद्दे को धार देने की रणनीति बनाई है.
मंडल कमीशन के बाद ओबीसी के इर्द-गिर्द रही यूपी की सियासत
दरअसल, उत्तर प्रदेश की सियासत मंडल कमीशन के बाद ओबीसी समुदाय के इर्द-गिर्द सिमट गई है. सूबे की सभी पार्टियां ओबीसी को केंद्र में रखते हुए अपनी राजनीतिक एजेंडा सेट कर रही हैं. यूपी में सबसे बड़ा वोटबैंक पिछड़ा वर्ग का है. सूबे में 52 फीसदी पिछड़ा वर्ग की आबादी है, जिसमें 43 फीसदी गैर-यादव बिरादरी का है. इन्हीं जातियों को अतिपिछड़े वर्ग के तौर पर माना जाता है. ओबीसी में 79 जातियां हैं, जिनमें सबसे ज्यादा यादव और दूसरे नंबर पर कुर्मी समुदाय है.
वहीं, यूपी में गैर-यादव ओबीसी जातियां सबसे ज्यादा अहम हैं, जिनमें कुर्मी-पटेल 7 फीसदी, कुशवाहा-मौर्या-शाक्य-सैनी 6 फीसदी, लोध 4 फीसदी, गडरिया-पाल 3 फीसदी, निषाद-मल्लाह-बिंद-कश्यप-केवट 4 फीसदी, तेली-शाहू-जायसवाल 4, जाट 3 फीसदी, कुम्हार/प्रजापति-चौहान 3 फीसदी, कहार-नाई- चौरसिया 3 फीसदी, राजभर-गुर्जर 2-2 फीसदी हैं. ऐसे में अतिपिछड़ी जातियां किसी भी राजनीतिक दल का खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखती हैं.
बीजेपी ने गैर-यादव ओबीसी जातियों को साधकर उत्तर प्रदेश में अपना सत्ता का सूखा खत्म किया था. जबकि इन्हीं जातियों के बसपा के हाथों से खिसक जाने के चलते उसे 10 सालों से सियासी वनवास झेलना पड़ रहा है. मायावती का सियासी आधार चुनाव दर चुनाव गिरता जा रहा है. 2022 के चुनाव में बसपा का वोट शेयर गिरकर 12 फीसदी के करीब पहुंच गया है. ऐसे में अब बसपा को दोबारा से खड़े होने के लिए सियासी मुश्किलें खड़ी हो गई है, लेकिन ओबीसी आरक्षण का मुद्दा एक बार फिर से पार्टी को सियासी संजीवनी दे सकता है. देखना है कि मायावती इस मुद्दे पर किस तरह का राजनीतिक स्टैंड लेती हैं?
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